Loksabha Election 2024 : इस बार के लोकसभा चुनावों में राजनीतिक पार्टियों, ख़ास तौर पर भाजपा और कांग्रेस के जीत-हार को लेकर सट्टा बाज़ार काफ़ी उछाल पर है। दरअसल, हिंदुस्तान में चल रहे अनेकों आन्दोलनों और मौजूदा केंद्र की मोदी सरकार के ख़िलाफ़ उठ रही आवाज़ों के चलते ये सट्टा बाज़ार गर्माये हुए हैं। जहाँ अरबों रुपये के सट्टे लग चुके हैं। लेकिन इसके पीछे एक जो सबसे बड़ी वजह है, वो यह है कि मतदाता मतदान में पहले जैसी दिलचस्पी नहीं ले रहे हैं। अभी तक हो चुके दो चरणों के चुनावों में सन् 2019 के लोकसभा चुनावों के मुक़ाबले इस बार वोटिंग में तक़रीबन पाँच फ़ीसदी से ज्यादा की गिरावट दर्ज की गयी है।
इस बार चुनाव आयोग ने लोकसभा चुनाव सात चरणों में कराने का फैसला किया था। जिसमें से चार चरणों के लिए 19 अप्रैल और 26 अप्रैल, 07 मई और 13 मई को वोटिंग हो चुकी है। इनमें पहले चरण में 66.14 फ़ीसदी, दूसरे चरण में 66.71 फ़ीसदी और तीसरे चरण में 64.40 फ़ीसदी वोट पड़े, जो चिन्ताजनक रहे। हालाँकि चौथे चरण में 67.25 फ़ीसदी वोट पड़े। अभी तीन चरणों की वोटिंग बाकी है। जिसमें वोटिंग फ़ीसद बढ़ाने को लेकर चुनाव आयोग हर संभव कोशिश में लगा हुआ है। एक अनुमान के मुताबिक, हिंदुस्तान में तक़रीबन एक अरब बालिग महिला-पुरुष हैं, जो वोटिंग कर सकते हैं।
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ऐसे में सवाल यह उठाना लाज़मी होगा कि आख़िर लोग वोटिंग करने के लिए घरों से क्यों नहीं निकल रहे हैं? चुनाव आयोग से लेकर सभी पार्टियों के उम्मीदवार भी इसे लेकर हैरान-परेशान हैं और वोटरों से ज्यादा-से-ज्यादा वोटिंग करने अपील की जा रही है। कुछ लोगों का कहना है कि तेज गर्मी के चलते लोग वोटिंग कम कर रहे हैं। लेकिन मेरा मानना है कि पिछले कई चुनाव इसी प्रकार गर्मियों में ही हुए हैं। लेकिन इतनी मायूसी मतदाताओं में पहले कभी नहीं देखी गयी। जितनी कि इस बार देखी जा रही है। मुझे लगता है कि वोटर्स की मौजूदा केंद्र की मोदी सरकार और कई राज्यों में भाजपा की सरकारों से नाराज़गी का नतीजा तो नहीं है। इसके अलावा इन दिनों देश भर में आन्दोलन चल रहे हैं और इन आन्दोलनों में जो लोग मौजूद हैं, वो न सिर्फ़ सरकारों का विरोध कर रहे हैं, बल्कि उनमें से बहुत-से आन्दोलनकर्ता ईवीएम मशीन का भी विरोध कर रहे हैं। वहीं जो लोग आन्दोलन नहीं कर रहे हैं, उनकी भी यही स्थिति है।
हालाँकि चुनाव आयोग और चुनाव आयोग के पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त ओ.पी. रावत भी कम वोटिंग फ़ीसद के पीछे भीषण गर्मी ही मान रहे हैं। लेकिन यह सब बातें गले नहीं उतर रही हैं। हाँ, यह कहा जा सकता है कि पहले और दूसरे चरण के लिए वोटिंग शुक्रवार को हुई थी, जो कि काम का दिन होता है। इससे भी नौकरीपेशा वोटर्स को वोट डालने जाने में काफ़ी दिक्कत होती है। अगर ये वोटिंग शनिवार या रविवार को होती, या फिर रविवार को ही होती, तो मेरे ख़याल से पाँच फ़ीसदी मतदाता और प्लस हो सकते थे। ऐसे में अगर वोटिंग बढ़ती नहीं, तो पिछली बार के बराबर जरूर होती। आगे भी चुनाव आयोग को अभी जिन तीन चरणों में वोटिंग करानी है। उनमें से सिर्फ़ दो छठे और सातवें चरण के लिए वोटिंग शनिवार को होगी। लेकिन उससे पहले पाँचवें चरण के लिए वोटिंग सोमवार को होना तय है।
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इस प्रकार आने वाले तीन चरणों में से सिर्फ दो चरणों की वोटिंग शनिवार को होगी। ऐसे में चुनाव आयोग को इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए और वोटिंग के लिए दिन तय करते समय कोशिश करनी चाहिए कि वोटिंग ज्यादा-से-ज्यादा रविवार को हो, या कम-से- कम शनिवार को हो। हालाँकि फिर भी वोटर्स की उदासीनता कम वोटिंग का एक बड़ा कारण है, जिसे तभी ख़त्म किया जा सकता है, जब या तो सभी को वोटिंग करना अनिवार्य हो या फिर सरकारों के काम से वोटर्स खुश हों।
बहरहाल इस कम वोटिंग का एक और पहलू, जो मेरी समझ में आया है। उस तरफ शायद ही किसी का ध्यान जाता होगा। और यह पहलू है कि जो लोग अपने घरों से दूर नौकरी या बिजनेस के लिए बाहर रहते हैं। लेकिन उनकी स्थायी पता अपने गाँव या अपने शहर का होता है, वे लोग जल्दी अपने घरों को नहीं लौट पाते और मेरे ख़याल से ऐसे लोगों की संख्या कम-से-कम 12 से 25 फ़ीसदी के आसपास होगी। तो ऐसे लोग चुनाव वाले दिन स्पेशली वोट डालने के लिए घर नहीं लौटना चाहते या उन्हें समय या छुट्टी नहीं मिल पाती। जिसके चलते वोटिंग कम होती है। इतना बड़ा असर कम वोटिंग में है कि अगर सभी वोटर वोटिंग वाले दिन अपने गांव या शहर में हों, तो कम-से-कम 10-12 फ़ीसदी वोटिंग बढ़ जाएगी। कई जानकार भी मानते हैं कि कम वोटिंग के पीछे बड़ी वजह है कि काफ़ी संख्या में वोटर्स अपने घरों से बाहर होते हैं। क्योंकि आसपास रोजी-रोटी का इंतजाम नहीं होता। इसलिए वो बाहर रहने लगते और ज्यादातर वोटर्स वोटिंग के समय मतदान केंद्र तक नहीं आ सकते।
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हालांकि आज तक इसके लिए किसी प्रकार का सर्वे भी नहीं हुआ। ताकि यह पता चल जाए कि बाहर रहने वाले वोटर्स की संख्या किस जिले या लोकसभा सीट से कितनी है? अगर इसके सर्वे हों, तो यह साफ़ हो जाएगा कि किस लोकसभा या विधानसभा सीट से कितने वोटर्स बाहर हैं? पूरे हिंदुस्तान के सभी राज्यों की बात करें, तो इसके लिए भी कोई आधिकारिक आँकड़ा मौजूद नहीं है। कितने बालिग लोग यानी वोट डालने योग्य लोग अपने राज्य या शहर से बाहर किसी दूसरे राज्य या शहर में काम करते हैं? क्योंकि आंतरिक प्रवासियों की गिनती हुए 13 साल के क़रीब हो चुके हैं।
विशेषज्ञों और जानकारों ने जो अनुमान देश के अंदर ही अपने राज्य या शहर से बाहर काम करने वालों का लगाया है, वो तक़रीबन 40 फ़ीसदी है। कुछ जानकारों ने मुताबिक़ ये आँकड़ा तो कुछ ज़्यादा ही है, लेकिन कम-से- कम 25 फ़ीसदी तक वोटर्स बाहर हो सकते हैं। हालाँकि इसमें एक अपवाद यह भी है कि इनमें से पाँच फ़ीसदी से ज्यादा ऐसे भी हैं, जो बाहर ही बस गये हैं और वहीं के वोटर हो चुके हैं। सन् 2011 के आंतरिक प्रवासियों के आँकड़े बताते हैं कि उस समय हिंदुस्तान में 45.6 करोड़ लोग अपने राज्यों से बाहर काम कर रहे थे। सन् 2011 में हिंदुस्तान की आबादी तक़रीबन 1.21 अरब थी और अब हिंदुस्तान की अनुमानित आबादी तक़रीबन 1.44 अरब या कुछ जानकारों के मुताबिक तक़रीबन 1.50 अरब है। ऐसा माना जा सकता है कि हिंदुस्तान में एक राज्य से दूसरे राज्य या फिर एक शहर से दूसरे शहर में काम करने वाले प्रवासियों की संख्या तक़रीबन 60 करोड़ होगी।
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जिनमें से अपने जन्म स्थान के ही बचे हुए वोटर्स की संख्या 40 करोड़ के क़रीब हो सकती है। इस प्रकार से अगर इन 40 करोड़ को सभी राज्यों में विभाजित कर दें, तो हर राज्य से तक़रीबन 1.5 करोड़ लोग यानी वोटर्स बाहर हो सकते हैं। हालाँकि उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, बिहार, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल के लोग ज्यादातर बाहर रहते हैं। जबकि तक़रीबन 22 राज्यों के लोग रोजी-रोटी के सिलसिले में ज़्यादा संख्या में बाहर रहते हैं। लेकिन इस मामले में पहले नंबर पर बिहार है। वहीं दूसरे नंबर पर उत्तर प्रदेश के होने की संभावना है। इसके बाद क्रमशः मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल, झारखण्ड, छत्तीसगढ़, उत्तराखण्ड, हिमाचल, पूर्वोत्तर राज्य, राजस्थान, गुजरात, हरियाणा, महाराष्ट्र, पंजाब, जम्मू-कश्मीर, लद्दाख और पश्चिम के कई प्रदेशों के लोग प्रवासी के रूप में दूसरे राज्यों या दूसरे शहरों में रहने का अनुमान है।
कुछ जानकार यह भी मानते हैं कि कोरोना महामारी में लगे लॉकडाउन के बाद से दूसरे प्रदेशों या दूसरे शहरों में रहने वाले प्रवासियों की संख्या काफ़ी कम हुई है। मसलन, अरब इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ माइग्रेशन ऐंड डेवलपमेंट नामक थिंक टैंक प्रमुख एस. इरुदाया राजन ने पिछले दिनों कहा था कि 2020 में कोरोना महामारी के चलते केंद्र की मोदी सरकार द्वारा पूरे देश में लगाये गये लॉकडाउन से अपने घरों को बड़ी संख्या में लोग लौट गये। जिनमें से ज्यादातर लोग काम पर वापस नहीं लौटे। इस आधार पर अब प्रवासियों की संख्या में क़रीब 15 करोड़ के आसपास होगी। जबकि मेरा मानना है कि अगर ऐसा होता, तो शहरों में काम करने वालों की कमी हो गयी होती। लेकिन ऐसे हालात नज़र नहीं आ रहे हैं। भले ही कोरोना महामारी के बाद से नौकरियों की संख्या भी कम हुई है। लेकिन अगर इतनी बड़ी संख्या में लोग गाँवों और अपने शहरों से नहीं लौटते, तो आसानी से बचे हुए लोगों को रोज़गार मुहैया हो जाते। लेकिन हम देखते हैं कि देश की राजधानी दिल्ली जैसे बड़े महानगर में भी नौकरी माँगने वालों की संख्या अभी भी पहले की तरह ही है और भीड़भाड़ में भी कोई कमी नहीं आयी है।
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बहरहाल अगर हम देखें, तो पिछले कुछ वर्षों में हिंदुस्तान में रोज़गार ढूँढने वाले युवाओं की संख्या बड़ी है और ग्रामीण इलाक़ों से युवा निकलकर शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं, जिससे वोटर्स की संख्या ग्रामीण इलाक़ों में ही नहीं, बल्कि छोटे शहरों में भी घटी है। कई युवा तो बड़े शहरों में जाकर छोटी-मोटी नौकरी से लेकर दिहाड़ी मज़दूर तक हैं। दिल्ली में मैंने खुद देखा है कि जितने भी नौकरी पेशा और छोटे-मोटे काम-धंधे वाले लोग हैं, उनमें से 80 फ़ीसदी से ज्यादा प्रवासी हैं, भले ही उनमें से 10 से 15 फ़ीसदी दिल्ली के स्थायी निवासी हो गये हों।
भले ही बड़े शहर या दूसरे राज्य इन प्रवासियों को दोयम दर्जे का नागरिक मानते हों; लेकिन इन लोगों को यहाँ दो-जून की रोटी आराम से मिल जाती है, जिसके चलते ये अपने गाँव, शहर तभी लौटते हैं, जब कोई बड़ा त्योहार हो या किसी की शादी में या किसी की मौत में जाने की मजबूरी हो। सरकारी आँकड़ों के मुताबिक, सन् 2019 के लोकसभा चुनावों में तक़रीबन 30 करोड़ से ज्यादा वोटर्स ने वोटिंग नहीं की थी, जिनमें से ज़्यादातर प्रवासी शामिल थे। इस बार के पानी 2024 के लोकसभा चुनाव के तीन चरणों में कम वोटिंग सन् 2019 के मुक्क़ाबले जो गिरावट हुई है, उसकी भरपाई तो नहीं हो सकती; लेकिन भविष्य में वोटर्स को ज़्यादा वोटिंग के लिए तैयार करने की कोशिश चुनाव आयोग को करनी चाहिए।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं।)