
इसमें शिया-सुन्नी से ऊपर की सभी जातियां शामिल हैं, जिन्हें मुस्लिम समाज में वंचित माना जाता है, जैसे अंसारी, कसाई, धुनिया, नाई, गद्दी आदि। इसके विपरीत सैयद, पठान, शेख जैसी “अशराफ” जातियां परंपरागत रूप से श्रेष्ठ मानी जाती हैं। राजनीतिक जानकारों का मानना है कि भाजपा की मंशा मुस्लिम वोटों के ध्रुवीकरण को रोककर विपक्ष को नुकसान पहुंचाने की हो सकती है, वरना अगर पूरा मुस्लिम वोट सपा या किसी अन्य पार्टी को चला गया तो इसका सीधा नुकसान भाजपा को होगा। इसलिए अगर मुस्लिम समुदाय में अंदरूनी फूट पड़ी तो वोटों का बंटवारा हो सकता है।
दूसरी बात, पसमांदा मुसलमानों को लुभाने के लिए भाजपा का तर्क है कि तथाकथित धर्मनिरपेक्ष दलों ने पसमांदा मुसलमानों को सिर्फ वोट बैंक समझा और उन्हें मुख्यधारा में नहीं लाया। भाजपा खुद को उनके ‘विकास’ का समर्थक बताकर उन्हें शामिल करना चाहती है।
तीसरी बात, समाजवादी पार्टी को कमजोर करने की रणनीति। सपा को अक्सर मुस्लिम-यादव समीकरण पर आधारित पार्टी कहा जाता है। अगर मुस्लिम वोट आधार कमजोर हुआ तो सपा को नुकसान होना तय है।
दूसरी तरफ, समाजवादी पार्टी की चिंता क्या है? सपा नेतृत्व को डर है कि भाजपा की यह रणनीति उसके परंपरागत मुस्लिम वोट बैंक को कमजोर कर सकती है। जिससे उसका पीडीए फॉर्मूला भी कमजोर पड़ सकता है। यही वजह है कि सपा के कुछ नेताओं ने इसे ‘सांप्रदायिक विभाजन की चाल’ करार दिया है।
भाजपा पसमांदा मुस्लिम समुदाय में सेंध लगाकर समाजवादी पार्टी की वोट बैंक की राजनीति को चुनौती देना चाहती है। यह रणनीति सामाजिक न्याय के नाम पर की जाती है, लेकिन इसके पीछे चुनावी लाभ भी एक बड़ा कारण है। अब देखना दिलचस्प होगा कि आगामी चुनावों में यह रणनीति किस हद तक सफल होती है और सपा इसका क्या जवाब देती है। यह देखना दिलचस्प होगा। BJP