AIMPLB : मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की कार्यसमिति की बैठक में कई महत्वपूर्ण प्रस्ताव पारित किए गए। इनमें से सबसे महत्वपूर्ण प्रस्ताव तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं को गुजारा भत्ता देने वाले सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ था। बोर्ड का कहना है कि यह फैसला शरीयत के खिलाफ है और मुस्लिम महिलाओं के हित में नहीं है। बोर्ड ने यह भी कहा कि यह फैसला संविधान प्रदत्त धार्मिक स्वतंत्रता का उल्लंघन करता है।
एआईएमपीएलबी ने समान नागरिक संहिता (यूसीसी) का भी विरोध किया। बोर्ड का कहना है कि यूसीसी मुसलमानों के धार्मिक अधिकारों पर हमला है और वे इसका विरोध करना जारी रखेंगे। बोर्ड ने उत्तराखंड में लाए जा रहे यूसीसी विधेयक को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने का फैसला किया है।
बैठक में वक्फ कानून को खत्म करने और वक्फ संपत्तियों के अतिक्रमण के खिलाफ भी प्रस्ताव पारित किए गए। बोर्ड ने पूजा स्थल अधिनियम को लागू करने और फलस्तीन के मुद्दे पर भारत सरकार के रुख का समर्थन करने का भी फैसला किया।
मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (एआईएमपीएलबी) ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले का विरोध करते हुए कई कारण बताए हैं:
1. शरीयत के विरुद्ध: एआईएमपीएलबी का मानना है कि यह फैसला शरीयत (इस्लामी कानून) के खिलाफ है। उनका तर्क है कि तलाक के बाद महिलाओं को केवल ‘मेहर’ (विवाह अनुबंध में तय की गई राशि) का हक है, न कि गुजारा भत्ता का।
2. धार्मिक स्वतंत्रता का हनन: एआईएमपीएलबी का यह भी तर्क है कि यह फैसला संविधान द्वारा प्रदत्त धार्मिक स्वतंत्रता का उल्लंघन करता है। उनका मानना है कि मुसलमानों को अपने धार्मिक मामलों में स्वायत्तता का अधिकार है, और इसमें तलाक के बाद के रखरखाव से संबंधित कानून भी शामिल हैं।
3. ‘भीख’ का अपमान: एआईएमपीएलबी ने यह भी कहा कि गुजारा भत्ता मुस्लिम महिलाओं के लिए “भीख” के समान है। उनका मानना है कि यह महिलाओं को आत्मनिर्भर बनने के लिए प्रोत्साहित नहीं करता है और उन्हें पुरुषों पर निर्भर बनाता है।
4. कानूनी चुनौती: एआईएमपीएलबी ने कहा है कि वे सुप्रीम कोर्ट के फैसले को कानूनी रूप से चुनौती देंगे। वे इस मामले में पुनर्विचार याचिका दाखिल करने की योजना बना रहे हैं।
यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि एआईएमपीएलबी का यह रुख सभी मुसलमानों का प्रतिनिधित्व नहीं करता है। कई मुस्लिम संगठनों और महिला अधिकार समूहों ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले का स्वागत किया है और इसे महिलाओं के लिए न्याय की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम बताया है।
यह मुद्दा भारत में धर्म और कानून के बीच जटिल संबंधों को उजागर करता है। आने वाले समय में इस पर बहस जारी रहने की संभावना है।