सत्ता और किसान : चौधरी चरण सिंह की इस गहरी बात के तब से लेकर आज तक अनेकों उदाहरण हैं जिसमें सत्ताधारी दलों में कई जाट नेताओं को समाप्त करने के षडयंत्र हमारे सामने हैं। 70 के दशक में कांग्रेस के लिए बड़ी चुनौती बन चुके चौधरी चरण सिंह की सियासत को समाप्त करने के लिए तत्कालीन सत्ताधारी कांग्रेस ने श्रम शक्ति और जाटों की आवाज को दबाने के लिए तमाम हथकंडे अपनाए, लेकिन कांग्रेस अपने मनसूबों में कामयाब नहीं हो पाई।
उसके बाद चौधरी अजित सिंह को कमजोर करने के तत्कालीन सत्ताधारी भाजपा ने पश्चिमी यूपी से आने वाले जाट समाज के विद्वान जाट नेता सोमपाल शास्त्री को आगे किया और नतीजा बागपत से अजित सिंह को हराकर लोकसभा चुनाव जीतने पर उन्हें भाजपा की वाजपेई सरकार में कृषि राज्य मंत्री बनाया गया। लेकिन बाद में भाजपा ने उन्हें अनुपयोगी बताते हुए किनारे लगा दिया।
हरियाणा के तत्कालीन मुख्यमंत्री ओमप्रकाश चौटाला ने पश्चिमी यूपी में अजित सिंह को कमजोर करने के लिए हरेंद्र मलिक को राज्यसभा से सांसद बनाया। हालांकि हरेंद्र मलिक ने सियासी दांव चलते हुए ओमप्रकाश चौटाला को धत्ता बताकर कांग्रेस का दामन थामा। मुंबई से राजस्थान आकर धर्मेंद्र ने साल 2004 में बीकानेर से लोकसभा चुनाव लड़कर राजस्थान के जाट नेता रामेश्वर लाल डूडी को ही नहीं बल्कि पड़ोस की सीट पर चुनाव लड़ रहे बड़े जाट नेता बलराम जाखड़ को भी हराकर नस्ल को पीछे धकेलने की शुरुआत की, उसके बाद उनके परिवार को किसानों और जाटों की सियासत को ख़त्म करने के लिए हथियार के रूप में किस प्रकार प्रयोग किया गया ये किसी से छुपा नहीं है।
इसी दौरान संसद के सेंट्रल हाल में मैने सांसद धर्मेंद्र से ये सवाल किया था कि क्या आप बंबई फ़िल्म नगरी को छोड़कर वास्तव में राजनीति करने आए हैं? या केवल जाटों की सियासत खत्म करने का इरादा है? उन्होंने जवाब दिया! बिलकुल नहीं, मै तो पॉलिटिक्स का ‘पी’ भी नहीं जानता। शायद मेरे अलावा समाज के कुछ अन्य लोगों ने भी उनसे ये सवाल किये होंगे, क्योंकि उसके बाद वह मुंबई चले गए और लौट कर कभी सदन नहीं आए, उन्होंने केवल रामेश्वर लाल डूडी को ही नहीं बल्कि जाट समाज के बड़े नेता बलराम जाखड़ को भी हरवाने का पाप किया था।
इन सब कारणों और सियासी दांव पेंच से आहत होकर अपना कार्यकाल पूरा किए बिना ही उनका मुंबई लौटना इस बात का प्रमाण है कि राजनीति में धर्मेंद्र आए नहीं बल्कि ख़ास मक़सद के तहत लाए गए थे। उसके बाद उनकी पत्नी हेमा मालिनी का जयंत चौधरी को हराना, उनके बेटे सन्नी देओल का सुनील जाखड़ को हराना जग जाहिर है।
बरहाल, आज हमें सत्ताधारी दल में जाट समाज का प्रतिनिधित्व कर रहे उन नेताओं के नामों और उनके समाज को दिए गए योगदान पर गौर करने की आवश्यकता है। कुछ आज भी सत्ताधारी दल के साथ जुड़े हुए हैं जबकि सत्ताधारी दल में मजबूती की ओर बढ़ रहे कईयों को किनारे कर दिया गया है और कुछ जल्द ही किनारे होने वाले हैं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि चाहे कांग्रेस हो या भाजपा, जाट समाज की लीडरशिप को समाप्त करने का श्रेय सत्ताधारी दल को ही जाता है। इस पर श्रम शक्ति और खासकर जाट समाज को विचार करना होगा।