युवा किसान : हिंदी फिल्म उपकार का एक गाना है- ‘मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे-मोती’। पुराने बुजुर्ग कहा भी करते थे कि धरती सोना उगलती है और ये कहावत तो सभी ने सुनी होगी कि समझदार लोग मिट्टी से सोना उगा लेते हैं। दरअसल, ये सब कहावतें कहां से बनीं, ये सोचने का विषय भी है और इस पर अमल करने की जरूरत भी है। धरती से यानि मिट्टी से सोना और हीरे मोती कमाने का काम जो करता है, वो किसान कमेरा वर्ग है। हालांकि ये बात भी सच है कि हमारे देश हिंदुस्तान में सोना, हीरा-मोती और दूसरे कीमती खनिज पदार्थ भी खूब होते हैं, लेकिन इंसान की जिंदगी के लिए जो सबसे बड़ा सोना और हीरे मोती या दूसरे जवाहरात से ज्यादा कीमती चीज है, वो है खाना और पानी। पानी तो प्रकृति ने खुद ही इंसानों को दे रखा है, लेकिन खाने की चीजें किसानों से ही हम सबको मिलती हैं।

मैं खुद एक किसान परिवार से आता हूं और अच्छी तरह समझता और जानता हूं कि किसान जब तक खेतों में हल नहीं चलाएगा, लोगों को खाना नहीं मिल सकता। लेकिन दुख इस बात का होता है कि किसानों के बच्चे अब खेती में दिलचस्पी नहीं ले रहे हैं और वो छोटी दुकान चलाने से लेकर गार्ड और ड्राइवर की नौकरी तो करना पसंद कर रहे हैं, वो भी जैसे-तैसे सिर्फ घर चलाने के लिए हर महीने एक छोटी सी आमदनी के लिए। आपको बता कि इसकी वजह खेती में होने वाला घाटा है, जिसके लिए सरकार तो जिम्मेदार है ही, लेकिन कहीं न कहीं किसान भी जागरूकता की कमी के चलते या ये कहें कि खेती को मुनाफे का सौदा न बना पाने के चलते जिम्मेदार हैं। क्योंकि आज देश के ज्यादातर किसान, खास तौर पर छोटे और मझोले किसान खेती बस कहने के लिए कर रहे हैं और एक भेड़ चाल उन्होंने अपना रखी है और कई दशकों से हर साल वही गेहूं, धान और गन्ना इन्हीं फसलों पर अटके हुए हैं।
इसके अलावा वो खेती बस बो देते हैं, खाद-पानी देते हैं और आखिर में फसल काट लेते हैं, इसमे कोई खास तकनीक या ज्यादा उपज लेने के बेहतर तरीकों का इस्तेमाल वो नहीं करते और एक एवरेज फसल पैदा करके जिंदगी भर इसी बात से परेशान रहते हैं कि उनका घर नहीं चल पा रहा है, जिसके चलते उनके बच्चे भी खेती न करके छोटी-मोटी नौकरी करने में दिलचस्पी ज्यादा रखते हैं। हालांकि इसमें सिर्फ किसानों का ही दोष नहीं है, केंद्र सरकार और राज्य सरकारों का भी है, जिन्होंने किसानों के लिए तो भाव बिल्कुल घाटे के लेवल पर तय कर दिया है, लेकिन दलालों, बिचौलियों और दुकानदारों को मनमानी कीमत वसूलने के लिए छूट दे रखी है।
यही वजह है कि किसानों के बच्चों की ही नहीं, बल्कि किसानों की भी खेती में रुचि नहीं है। हालांकि कोई अधेड़ किसान या बुजुर्ग किसान, जो कि कुछ खास पढ़ा-लिखा भी नहीं है, क्या करे, उसे तो कोई नौकरी भी नहीं देगा, इसलिए वो मजबूर होकर अपने परिवार के साथ खेतों में दिन-रात लगा रहता है और जीतोड़ मेहनत करके तमाम लागत लगाकर घाटा उठाता रहता है और इसी के चलते ज्यादातर किसान कर्ज में डूब जाते हैं। बहरहाल, इसका हल क्या है और किसान कैसे अपनी और देश की आर्थिक तस्वीर बदलते हुए किस तरह से अपनी और देश की किस्मत चमका सकता है?
इसके लिए पहले तो किसानों को नई कृषि तकनीक के साथ-साथ पारंपरिक यानि प्राकृतिक खेती की ओर जाना पड़ेगा और एक ही खेत में एक ही बार में कई-कई फसले पैदा करके न सिर्फ अपना मुनाफा बढ़ाने की दिशा में काम करना होगा, बल्कि अपने बच्चों को भी कृषि शिक्षा के साथ-साथ खेती को व्यवसाय बनाना होगा, जिससे उनकी आमदनी बढ़ेगी और वो दूसरे की नौकरी करने के बजाय अपने ही खेत में काम करके खुद के मालिक बनने को महत्व दें। इसके लिए उन्हें अपने खेत में उगी फसलों की खुद ही मार्केटिंग करनी होगी। और भले ही केंद्र की मोदी सरकार उन्हें उचित एमएसपी नहीं दे रही है, लेकिन किसानों को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का एक मंत्र याद रखकर काम करना चाहिए, और वो मंत्र है आत्मनिर्भर बनो।
इस आत्मनिर्भर शब्द को अगर ध्यान से सोचा जाए, तो इसका लाभ सबको मिल सकता है। किसान आत्मनिर्भर बनने का मतलब ये निकाल सकते हैं कि वो खुद ही फसल उगाएंगे और खुद ही मार्केट में उसे बेचेंगे यानि वो बिचौलियों और दलालों को अपने और उपभोक्ताओं के बीच में नहीं आने देंगे। अगर वो ऐसा करेंगे, तो उन्हें अपनी मर्जी से उस फसल का भाव भी तय करने का अवसर मिलेगा और मुनाफा भी होगा। लेकिन इसके लिए उन्हें उस फसल से बनने वाली चीजें बनानी होंगी, उनकी पैकिंग करनी होगी और उनकी मार्केटिंग करनी होगी।
अब किसानों में ये सवाल उठ सकता है कि उन्हें इतना सब कुछ नहीं आता, तो कैसे करें? तो इसका जवाब है कि वो अपने पढ़े-लिखे बच्चों की मदद लें। आखिर उनके पढ़े-लिखे बच्चे कब काम आएंगे? और जो छोटे किसान हैं, वो एक समूह बनाकर कुछ पैसे लगाकर ये काम कर सकते हैं। और इसमें कोई खास पढ़ाई या तकनीक की जरूरत नहीं है। मान लीजिए कोई कंपनी दलिया बेचती है और गेहूं उगाने वाले किसान से ज्यादा कमा लेती है, तो इसमें किसान के लिए कौन सी बड़ी तकनीक सीखने की जरूरत है? उसे गेहूं का दलिया बनवाना है और बाजार में बेचना है। और अगर दलिया नहीं बनाकर बेच सकता, तो आटा तो बेच ही सकता है। दलिया का बाजार उतना बड़ा भी नहीं है, क्योंकि हर आदमी तो दलिया हमेशा खाता नहीं है, लेकिन आटा तो सबको चाहिए और हर वक्त चाहिए, तो आटा बनाकर बेचे किसान।
इसी प्रकार से दूसरी चीजें भी वो बाजार में एक व्यापारी की तरह बेच सकता है। जब किसान 1 किलो गेहूं से 100 किलो गेहूं उगा सकता है, तो उसकी मार्केटिंग क्यों नहीं कर सकता? किसान और उनके पढ़े-लिखे बच्चे कभी अपने आपसे ये सवाल क्यों नहीं पूछते कि छह महीने की मेहनत के बाद खेत में गेहूं उगाने वाला किसान 1 किलो की जगह बाजार में 1 किलो 10-12 ग्राम गेहूं बेचकर भी घाटे में क्यों है और वहीं एक व्यापारी 1 किलो गेहूं से 950 ग्राम दलिया बनाकर बाजार में बेचकर भी मालदार क्यों है? उसे तो दलिया बनाने में 50 ग्राम का घाटा हुआ है, फिर भी वो फायदे में क्यों है?
इसकी सीधी सी वजह है कि किसान को अपनी फसल का भाव तय करने का अधिकार नहीं है और व्यापारी को है। तो किसान को अपनी और देश की आर्थिक स्थिति बदलने यानि ठीक करने के लिए खुद ही व्यापारी बनकर बाजार की नब्ज पकड़ते हुए अपनी फसल का सदुपयोग करते हुए पैसा कमाने के तरीके निकालने पड़ेंगे और इसके लिए हिंदुस्तान ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया के बाजार खुले हुए हैं। और आज कई किसान ऐसे हैं भी, जो बाजार में उतरकर न सिर्फ खेती में होने वाले घाटे से बच रहे हैं, बल्कि मोटा मुनाफा कमा रहे हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)