गन्ना किसान : पश्चिमी उत्तर प्रदेश को कभी ‘चीनी का कटोरा’ कहा जाता था, लेकिन अब इस कटोरे में दरारें पड़ गई हैं। कभी खुशहाली की मिसाल माने जाने वाले गन्ना किसान आज अपनी ही फसल के दाम के लिए दर-दर भटक रहे हैं। सरकारी आंकड़ों और हकीकत में लगातार अंतर बढ़ता जा रहा है। गन्ने का उचित दाम न मिलना, बढ़ती महंगाई और परिवार की जरूरतों को पूरा न कर पाना किसानों को ऐसे दोराहे पर ला खड़ा कर दिया है, जहां उनके पास आत्महत्या के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा है। शामली जिले के एक गन्ना किसान की आत्महत्या की खबर ने इस हकीकत को और उजागर कर दिया है।
ग्रामीण किसानों के मुताबिक मृतक किसान गन्ने की फसल का भुगतान न होने के कारण काफी समय से तनाव में था। बेटी की स्कूल फीस और घर के खर्च की चिंता ने उसे इस कदर तोड़ दिया कि उसने मौत को गले लगाना ही बेहतर समझा। उसका शव खेत में खून से लथपथ मिला, जिससे पूरे गांव में मातम छा गया। सरकार के दावों पर सवाल उठता है कि अगर गन्ना किसानों को समय पर भुगतान मिल रहा है, तो आत्महत्याओं की संख्या क्यों बढ़ रही है? किसानों को अपनी ही उपज के दाम के लिए महीनों इंतजार क्यों करना पड़ता है? सत्ता में बैठे लोग आंकड़ों का जाल बिछाकर असल मुद्दों से ध्यान क्यों भटकाते हैं?
राज्य सरकार विधानसभा में रिकॉर्ड गन्ना भुगतान के दावे कर रही है, लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और ही बयां करती है। गन्ना उगाने वाला किसान अपनी मेहनत का वाजिब हक मांगते-मांगते थक चुका है। बैंक का कर्ज, साहूकारों का दबाव और सरकारी उपेक्षा ने उसे इतना लाचार बना दिया है कि वह मौत को गले लगाने को मजबूर है। चुनाव के समय किसानों के कर्ज माफ करने और न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाने के वादे किए जाते हैं, लेकिन सत्ता में आने के बाद किसान सिर्फ वोट बैंक बनकर रह जाता है। विपक्ष भी सिर्फ वक्त आने पर ही बयानबाजी करता है और उसके बाद किसानों की दुर्दशा पर कोई बात नहीं करता। गन्ने के दाम बढ़ाने का वादा करने वाले नेता आज चुप क्यों हैं?
किसानों के नाम पर राजनीति करने वाले लोग कब तक सत्ता का मजा लेते रहेंगे? यह आत्महत्या सिर्फ एक किसान की कहानी नहीं है, बल्कि पूरी व्यवस्था की नाकामी है, जो किसानों को उनका हक नहीं दे पा रही है। अगर यही हाल रहा तो वह दिन दूर नहीं जब अन्नदाता आंदोलन करने को मजबूर हो जाएगा और तब सरकारें मुआवजे और आश्वासन के अलावा कुछ नहीं दे पाएंगी। आज जरूरत इस बात की है कि किसान सिर्फ वोटर न बनें बल्कि संगठित होकर अपने हक के लिए आवाज उठाएं। वरना ये आत्महत्याएं सिर्फ खबर बनकर रह जाएंगी और अगली बारी किसी और बेबस किसान की होगी।