दिल्ली : गृह मंत्री अमित शाह का नाम देश की राजनीति में न सिर्फ़ एक प्रभावशाली रणनीतिकार के रूप में, बल्कि भाजपा के ‘चाणक्य’ के रूप में भी स्थापित है। राजनीति में कुछ नाम ऐसे होते हैं जो सिर्फ़ एक व्यक्तित्व की नहीं, बल्कि एक विचारधारा, रणनीति और सत्ता के केंद्र की पहचान बन जाते हैं। अमित शाह ऐसा ही एक नाम हैं। ज़ाहिर है, गुजरात से दिल्ली तक मोदी की विजय यात्रा में उनका योगदान निर्णायक रहा है, चाहे वह संगठन विस्तार की बात हो या चुनावी चक्रव्यूह रचने की। 2014 से 2024 तक उन्होंने पार्टी को कई चुनावी सफलताएँ दिलाई हैं। लेकिन मोदी सरकार के तीसरे कार्यकाल की शुरुआत के साथ ही उनकी रणनीतिक योजनाएँ अचानक विफल होने लगीं।
सहकारिता मंत्रालय के एक कार्यक्रम में अपनी सेवानिवृत्ति योजना का ज़िक्र करते हुए अमित शाह ने वेदों, उपनिषदों, पुराणों और पारंपरिक खेती का ज़िक्र किया, तो यह चर्चा तेज़ हो गई कि क्या अमित शाह राजनीति से संन्यास लेने वाले हैं? मेरा मानना है कि शाह का यह बयान सिर्फ़ एक निजी फ़ैसला नहीं, बल्कि भारतीय राजनीति और भाजपा के भीतर चल रहे बड़े बदलावों का संकेत है। मोदी के तीसरे कार्यकाल की शुरुआत से ही ऐसी कई ख़बरें राजनीतिक गलियारों में चर्चा का विषय बनी हैं, लेकिन आज अमित शाह के अचानक राजनीति से संन्यास लेने के फ़ैसले को लेकर उत्सुकता है। तो क्या यह वाकई एक निजी फ़ैसला है या भाजपा के भीतर चल रहे गहरे बदलावों की राजनीतिक दस्तक?
क्या अमित शाह सत्ता के केंद्र से हाशिये पर जा रहे हैं? क्योंकि तीसरे कार्यकाल की सरकार बनने के बाद शाह की भूमिका अपेक्षाकृत सीमित नज़र आ रही है। जो व्यक्ति कभी सरकार और संगठन, दोनों में निर्णायक भूमिका निभाता था, आज धीरे-धीरे एक नियंत्रित और सीमित दायरे में नज़र आ रहा है। कहीं ऐसा तो नहीं कि यह बदलाव सिर्फ़ “नए नेतृत्व को अवसर देने” की एक सामान्य प्रक्रिया नहीं, बल्कि सत्ता के केंद्रीकरण से विकेंद्रीकरण की ओर बढ़ने की एक रणनीति है, जिसकी शुरुआत शायद संघ ने की हो।
मेरे लिए यह कोई रहस्य नहीं है कि संघ लंबे समय से भाजपा नेतृत्व की ‘मोदी-शाह’ केंद्रित कार्यशैली से असहज रहा है। 2024 के चुनावों के बाद, जब भाजपा बहुमत से चूक गई, तो आरएसएस ने भाजपा की इस दुर्दशा में एक अवसर ढूँढ़ लिया और “सत्ता का त्रिशूल” छीनकर एक नया सत्ता समीकरण बनाने का दबाव बनाना शुरू कर दिया। क्या यह संभव है कि अमित शाह पर भी संगठनात्मक और वैचारिक दबाव इतना बढ़ गया हो कि वे स्वयं आरएसएस से ‘स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति’ या समर्पण का रास्ता तलाशने लगे हों?
दूसरा सवाल यह है कि क्या अमित शाह राजनीति से ऊपर होंगे या राजनीति से बाहर? क्योंकि सेवानिवृत्ति की अटकलें सिर्फ़ एक हाशिए पर पड़े नेता की निराशा नहीं हो सकतीं। हमें यह भी याद रखना चाहिए कि मतभेद मोदी और संजय जोशी के बीच हैं! अमित शाह और संजय जोशी के बीच नहीं। क्योंकि अमित शाह जैसा नेता बिना ठोस योजना के कोई फ़ैसला नहीं लेता। इसलिए यह मानना ज़्यादा तार्किक होगा कि वे भी किसी नई भूमिका की तैयारी कर रहे होंगे? अगर हाँ, तो क्या यह फ़ैसला उन्हें उस “गरिमा और गरिमा” के साथ विदा करेगा जो राजनीति में बहुत कम लोग हासिल कर पाते हैं?
अगर अमित शाह चले जाते हैं, तो क्या उनका जाना सिर्फ़ एक व्यक्ति का संन्यास होगा? या भाजपा के लिए एक युग का अंत? क्योंकि यह वही दौर है जिसने 370 हटाया, राम मंदिर बनाया और भारत की राजनीति को पूरी तरह बदल दिया। लेकिन सवाल यह है कि क्या अमित शाह वाकई जा रहे हैं? या फिर किसी नई राजनीतिक पटकथा के नायक बनकर आने से पहले वे बस मंच बदल रहे हैं?
खैर, अमित शाह के संन्यास की अटकलें न सिर्फ़ एक राजनीतिक व्यक्ति का भविष्य तय करेंगी, बल्कि भाजपा और संघ के रिश्ते, संगठनात्मक शक्ति-संतुलन और 2029 की राजनीति की दिशा भी तय करेंगी। देश इस राजनीतिक शतरंज की अगली चाल का इंतज़ार कर रहा है। शाह के मन में संन्यास का विचार अचानक नहीं आया है। यह राजनीतिक परिस्थितियों, संगठनात्मक समीकरणों, नेतृत्व परिवर्तन और व्यक्तिगत प्राथमिकताओं का मिश्रण है। यह फ़ैसला उन्होंने ख़ुद लिया है या परिस्थितियों ने उन्हें इस ओर धकेला है, यह भाजपा के भीतर बदलते शक्ति-संतुलन का सूचक है। अगर ऐसा होता है, तो इसका असर न सिर्फ़ भाजपा पर, बल्कि संघ, विपक्ष और 2029 की राजनीति की दिशा पर भी पड़ेगा। Amit Shah