Lok Sabha Election 2024

Lok Sabha Election 2024 : सरकार से वफादारी का इनाम पाने वालों की लंबी फेहरिश्त, कलकत्ता हाईकोर्ट के जज भाजपा में हुए शामिल 

Lok Sabha Election 2024 : सरकार से वफादारी का इनाम पाने वालों की लंबी फेहरिश्त, कलकत्ता हाईकोर्ट के जज भाजपा में हुए शामिल

Published By Roshan Lal Saini

Lok Sabha Election 2024 : एक दौर वो था, जब पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई ने अपने भांजे से कहा था कि राजनीति की जमीन बहुत फिसलन भरी होती है, जरा संभलकर चलना। इसका मतलब ये था कि राजनीति में ईमानदार रहना, इस पेशे को लालच की नजर मत रखना, क्योंकि सत्ता की मलाई खाने का चस्का बहुत बुरा होता है। लेकिन आज राजनीति की मलाई खाने के चक्कर में न जाने कितने लोग लगे हुए हैं। सभी को नौकरशाही पर रौब गांठने, जनता पर शासन करने, लग्जरी गाड़ियों में घूमने और मन मुताबिक पैसा कमाकर भी ईडी, सीबीआई और इनकम टैक्स डिपार्टमेंट से बचे रहने के लिए ये सबसे अच्छा पेशा लगता है।

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ऐसी तमाम सुविधाओं के चलते ज्यादातर नौकरशाहों से लेकर बहुत से जज तक राजनीति में आने के लिए लालायित रहते हैं। राजनीतिक पार्टियां भी सत्ता में आने के बाद अपने पक्ष वाले वफादारों को बड़े ओहदे और राज्यसभा या लोकसभा में सांसद बनाकर उन्हें उनकी वफादारी का इनाम भी देती हैं। और ये खेल कोई आज का नहीं है, बल्कि हिंदुस्तान के आजाद होने के बाद नेहरू के शासन काल से हो रहा है।

हाल ही में कलकत्ता हाई कोर्ट के एक जज ने 5 मार्च को दोपहर में एक फैसला सुनाया और 3 बजे के करीब इस्तीफा देकर भाजपा में शामिल हो गए। इनका नाम अभिजीत गंगोपाध्याय है, जो अब पूर्व जज होकर भाजपा के एक नेता बन चुके हैं। पूर्व जज अभिजीत गंगोपाध्याय के भाजपा में शामिल होने की चर्चा पूरे देश में है और इस पर राजनीतिक बहसें हो रही हैं। ये अटकलें भी लगाई जा रही हैं कि पूर्व जज अभिजीत गंगोपाध्याय पश्चिम बंगाल के तामलुक संसदीय सीट से चुनाव लड़ सकते हैं।

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राजनीति के कुछ जानकार कह रहे हैं कि भाजपा लोकसभा चुनावों में ज्यादा से ज्यादा सीटें पाने के लिए ऐसे चेहरे तलाश रही है, जो जनता में अच्छी पहचान और साफ-सुथरी छवि रखते हों। भाजपा की ये तलाश उन राज्यों में ज्यादा सिद्दत से चल रही है, जहां उसे हारने का डर है। पश्चिम बंगाल भी ऐसी ही एक जगह है, जहां भाजपा को विधानसभा से लेकर लोकसभा तक की सीटें निकालना काफी मुश्किल है।

पिछले 10 सालों में भाजपा के बड़े से बड़े नेताओं ने, यहां तक कि खुद भाजपा के स्टार प्रचारक और देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पूरे जोर लगा लिए, लेकिन वो वहां पर अपने पैर नहीं जमा पाए। इसी के चलते अब वो वहां ऐसे चेहरे तलाश रहे हैं, जो लोकसभा की सीट पर जीत हासिल कर सकें।

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बहरहाल, जजों को उनकी वफादारी का इनाम कहें या ये कहें कि राजनीति में जजों को लाने की ये पार्टियों की मुहिम बहुत पहले से है, लेकिन हम अगर आजाद हिंदुस्तान में सरकारों के बनने बिगड़ने के पुरे इतिहास को देखें, तो पाएंगे कि जजों को सरकारों ने लोकसभा और राज्यसभा सदस्यों की कुर्सियां देकर नवाजा है। पिछले दिनों मध्य प्रदेश के विधानसभा चुनावों से पहले ही वहां के एक जिले दमोह में जज रहे प्रकाश भाऊ उइके ने अपने पद से इस्तीफा देकर भाजपा का दामन थाम लिया था। प्रकाश उईके के अलावा सोहन सिंह वनवासी ने भी विधानसभा चुनाव से पहले भाजपा का दामन थाम लिया था। आज सोहन सिंह कल्याण परिषद के अध्यक्ष हैं।

बहरहाल, भाजपा में जाने वाले प्रोफेशनल्स की सूची काफी लंबी है और ये सिलसिला अभी जारी है। अगर पिछले रिकॉर्ड देखें, तो मध्य प्रदेश व दिल्ली हाई कोर्ट के पूर्व न्यायधीश और कानूनविद् मूलचन्द गर्ग, दिल्ली बार काउंसिल निर्वाचित सदस्य और को-चेयरमैन अधिवक्ता पीयूष गुप्ता, दिल्ली बार काउंसिल निर्वाचित सदस्य और वाइस चेयरमैन अधिवक्ता डी.के. सिंह, गंगाराम अस्पताल के लीवर ट्रांसप्लांट सर्जन डॉ. सुरेश सिंघवी, डीडीए इंजिनियर असोसिएशन के अध्यक्ष परम यादव के अलावा सैकड़ों की संख्या में वकील, जज, अफसर, समाजसेवी, भाजपा में पिछले 10 सालों में शामिल हुए हैं।

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राजनीति के जानकार कहते हैं कि भाजपा में जाने वाले कुछ वफादारों को उनकी वफादारी का इनाम मिला है, तो कुछ की सामाजिक पहचान देखते हुए भाजपा ने उन्हें पार्टी में शामिल किया है। आज भाजपा में ऐसे भी कई लोग हैं, जिन्हें डरा-धमकाकर अपने पक्ष में करने के आरोप देश की इस सबसे बड़ी पार्टी पर लगते रहे हैं। भाजपा ने अपने वफादारों को सिर्फ राजनीति में ही जगह नहीं दी, बल्कि कईयो का ओहदा भी बढ़ाया है। पिछले साल लक्ष्मण चंद्रा विक्टोरिया गौरी को मद्रास हाई कोर्ट का जज नियुक्त करने को लेकर जमकर बवाल मचा। पूर्व जज रंजन गोगोई से लेकर कई नामचीन लोग हैं, जिन्हें भाजपा ने इनाम दिया है।

दरअसल, आजाद हिंदुस्तान में केंद्र की मोदी सरकार द्वारा जजों और अफसरों को उनकी वफादारी का इनाम देने का मामला कोई नया नहीं है, बल्कि पूर्ववर्ती सरकारें भी ऐसा करती आई हैं, और ये काम सिर्फ केंद्र की सरकारों ने ही नहीं किया है, बल्कि राज्य सरकारों ने भी किया है। जिसे भी की सत्ता की किसी भी कुर्सी तक पहुंचने का मौका मिला है, उसने उस मौके को दौड़कर लपका है। चाहे वो वीआर कृष्ण अय्यर हों, चाहे आफताब आलम हों, चाहे जज एफ रिबोले हों, चाहे केएस हेगड़े हों, चाहे जज अभय थिपसे होंं।

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ब्रिटिश हुकूमत में वकालत शुरू करने वाले केएस हेगड़े आजाद हिंदुस्तान में साल 1957 तक सरकारी वकील रहे। उनकी वफादारी को देखते हुए तत्कालीन नेहरू सरकार ने साल 1952 में उन्हें राज्यसभा सदस्य बनाकर इनाम दिया। हद तो तब हो गई, जब नेहरू सरकार ने उन्हें राज्यसभा सदस्य रहते हुए साल 1957 में मैसूर हाई कोर्ट का जज नियुक्त कर दिया। हालांंकि बाद में उन्होंने राज्यसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया था, लेकिन सरकार ने उन्हें उनकी वफादारी का इनाम देने में कंजूसी नहीं की। क्योंकि साल 1966 तक वो मैसूर हाई कोर्ट के जज रहे और उसके बाद उन्हें पहले दिल्ली हाई कोर्ट और फिर हिमाचल प्रदेश हाई कोर्ट का चीफ जज बनाया गया। लेकिन साल 1973 को जब उनसे जूनियर जज को सुप्रीम कोर्ट का चीफ जस्टिस बना दिया गया, तो केएस हेगड़े ने सरकार से बगावती तेवर दिखाते हुए 30 अप्रैल 1973 को इस्तीफा दे दिया।

इसी प्रकार से साल 1981 की तरफ एक जज आफताब आलम हुआ करते थे, जिन्हें उनकी वफादारी का इनाम तत्कालीन सरकार ने पहले स्थाई वकील नियुक्त करके दिया और बाद में सीपीआई के जरिए वो राजनीति में आ गए, जिसके बाद कांग्रेस में चले गए। साल 1990 में जब वो पटना हाई कोर्ट के जज बनाए गए, तो एक बार फिर उन्होंने राजनीति छोड़ दी। साल 2007 में उन्हें सुप्रीम कोर्ट में जज नियुक्त कर दिया गया। इसी तरह वीआर कृष्ण अय्यर को पहले उनकी वफादारी का इनाम राजनीति में लाकर दिया गया और बाद में वो सुप्रीम कोर्ट के जज बना दिए गए।

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हालांकि सुप्रीम कोर्ट में जज रहने के दौरान उन्होंने कई अच्छे फैसले दिए, जिनमें विचाराधीन कैदियों की जमानत वाला उनका फैसला ऐतिहासिक माना जाता है। साल 1980 में सुप्रीम कोर्ट के जज के पद से रिटायर होने वाले वीआर कृष्ण अय्यर ने तो साल 1987 में राष्ट्रपति पद के लिए कोशिश की, लेकिन सरकार ने अपने पसंदीदा कंडीडेट आर वेंकटरमण को देश का राष्ट्रपति बनाया। इसके अलावा जज एफ रिबोले साल 1966 में बॉम्बे हाई कोर्ट के जज नियुक्त हुए। इससे पहले वो गोवा से जनता पार्टी के विधायक रहे और साल 2010 में इलाहाबाद हाई कोर्ट में जज के पद रिटायर हुए थे। लेकिन इसके बाद फिर से वो अनंतनाग इलाके की लोकसभा सीट से राजनीति के अखाड़े में उतारे गए।

बरहरहाल, जजों और अफसरों को उनकी वफादारी का इनाम देने का सिलसिला जारी है, जिसके लिए किसी एक सरकार को दोषी तो नहीं ठहराया जा सकता है, लेकिन सवाल ये उठता है कि जिन जजों को देश के हर नागरिक के साथ इंसाफ करने के लिए नियुक्त किया जाता है, वो आखिर सरकारों के ऐसे कौन से एहसान तले दबे होते हैं कि वो जनहित और न्याय की सोच को दरकिनार करके सरकारों के साथ वफादारी निभाने लगते हैं। इसी प्रकार का सवाल सरकारी अफसरों के लिए भी है कि जिन अफसरों को जनता की सेवा और ईमानदारी से काम करने के लिए नौकरी दी जाती है, वो आखिर क्यों सरकारों के लिए काम करने लगते हैं?

अगर जजों और अफसरों को राजनीति में आने का इतना ही शौक होता है, तो फिर इतनी पढ़ाई करके, बड़ी-बड़ी परीक्षाएं पास करके जज और अफसर ही क्यों बनते हैं, उन्हें शुरू से ही सीधे-सीधे राजनीति में आना चाहिए। ऐसा करने से तो उनके ऊपर से लोगों का भरोसा कम होता है, और इस टूटे भरोसे की भरपाई उन्हें मिला कोई पद नहीं कर सकता है, चाहे वो राज्यसभा या लोकसभा के सदस्य का पद हो या चाहे मंत्री का पद हो या फिर चाहे कोई दूसरा बड़ा ओहदा।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतक विश्लेषक हैं)

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