Kisan Protest

Kisan Protest : एमएसपी पर वायदा खिलाफी क्यों कर सरकार, किसानों का गुस्सा बढ़ना लाज़मी ?

Kisan Protest : एमएसपी पर वायदा खिलाफी क्यों कर सरकार, किसानों का गुस्सा बढ़ना लाज़मी ?

Published By Roshan Lal Saini

Kisan Protest : “किसानों द्वारा 23 फसलों पर न्यूनतम समर्थन मूल्य यानि एमएसपी की मांग, पहले सरकार द्वारा की गई वायदा खिलाफी का नतीज़ा है। आज अगर किसान सरकार को शांति पूर्वक उसके उन लिखित वायदों की याद दिलाना चाहते हैं, जो उसने साल 2022 में किए थे, तो उन पर दुश्मनों की तरह हमले क्यों किए गए?”

तीन साल पहले तीन काले कृषि कानूनों को रद्द करके, किसानों से माफी मांग करके प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किसानों से जो वायदे किए थे, आज वो अपने उन्हीं वायदों से न सिर्फ मुकर गए हैं, बल्कि उन वायदों पर विचार करने के लिए और तीन साल मांग रहे हैं। सवाल ये है कि जब किसी सरकार को जनता चुनकर पांच साल देती है, तो क्या वो पांच सालों में अपनी पार्टी को मजबूत करने और जनता की जेबें खाली करने के लिए काम करती है? अभी किसान अपनी जिन 13 मांगों की याद प्रधानमंत्री मोदी को याद दिला रहे हैं क्या वही मांगें मानने का वायदा उनसे प्रधानमंत्री ने नहीं किया था?

Kisan Protest

ये भी पढ़िए …  बजट में किसानों को लुभाने की कोशिश करेगी मोदी सरकार

प्रधानमंत्री मोदी को तो यह भी याद होना चाहिए कि उन्होंने सत्ता में आने से पहले अपने भाषणों में देश के तमाम लोगों से तो छोड़िए किसानों से कितने वायदे किए थे? और हैरत की बात है कि उन्होंने अपने करीब 10 साल के इस कार्यकाल में सिर्फ कार्पोरेट जगत का ही भला किया है। तो फिर उन्हें अपनी और अपनी पार्टी की जीत के लिए कार्पोरेट जगत के वोटों पर ही निर्भर रहना चाहिए। फिर वो आम जनता से वोट मांगने का हक किस तरह रखते हैं। उन्हें आम जनता के बीच भी जाना बंद कर देना चाहिए और अपनी महंगी रैलियां और जनसभाएं करने की जरूरत ही क्या है?

अब तक के आजाद हिंदुस्तान के इतिहास में किसी भी केंद्र सरकार के द्वारा किसानों पर इतने अत्याचार मैंने न कभी देखे और न कभी सुने। जिन स्वामीनाथन और चौधरी चरण सिंह को यह सरकार भारत रत्न दे रही है, उनके सिद्धांतों को दूसरी तरफ तानाशाहों की तरह कुचल रही है। क्या मजाक है? क्या ये लोकतंत्र है? क्या किसानों को अपने ही देश में अपनी बात रखने का हक नहीं है? पिछले ही दिनों संसद में खड़े होकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लोकतंत्र का ढोल पीटा था। अब वो लोकतंत्र कहां गया? सवाल यह भी है कि जब कार्पोरेट जगत अपने हर उत्पाद पर मनमाने दाम लिखकर लोगों से वसूली करता है, तो क्या किसानों को एमएसपी का भी हक नहीं है? सरकार को पाबंदी तो उन पर लगानी चाहिए, जो किसान से दो रुपए किलो के भाव फसल उत्पाद खरीदकर उसे 200 रुपए किलो बेचना चाहते हैं।

एमएसपी को लेकर साल 2020 में कोरोना महामारी के दौरान जब पूरा देश घरों में दुबका हुआ था, तब किसान न सिर्फ सड़कों पर था, बल्कि उसने खेती किसानी से देश की अर्थव्यवस्था में 3 फीसदी से ज्यादा का योगदान देकर उसे मजबूत रखा। उस समय भी करीब 13 महीनों तक किसान दिल्ली की सीमाओं पर हर मौसम की मार झेलकर पुलिस और उपद्रवियों के हिंसक प्रहार सहकर शांति से बैठे रहे।

किसानों का सवाल है कि इस दौरान केंद्रीय मंत्री अजय मिश्रा टेनी के बेटे आशीष मिश्रा ने लखीमपुर खीरी में किसानों को अपनी कार से कुचलकर मार डाला, उसे क्या सजा हुई? इतना कुछ होने के बावजूद सरकार को न किसानों पर तरस आया और न ही उनकी जायज मांगों को उसने अभी तक स्वीकार किया है। और अब जब दोबारा किसानों ने 13 फरवरी को दिल्ली पहुंचकर शांतिपूर्वक सरकार को उसके किए वायदे याद दिलाने का ऐलान किया, तो उसने किसानों पर ड्रोन, रायफल, ग्रेनेड, रबर और खतरनाक हथियारों से हमले किए।

ये भी पढ़िए …  आखिर किसी से क्यों डर रहे पीएम मोदी और सत्ता काबिज भाजपा?

Kisan Protest

 

हरियाणा सरकार ने सबसे पहले तो हाईवे और सड़कें खुदवा दीं, फिर हाईवे और सड़कों पर इतने बेरिकेड, पत्थर और वाहन लगा दिए कि चींटी भी उन्हें पार न कर सके। इसके बाद वहां भेजी गई हरियाणा पुलिस, पैरा मिलिट्री फोर्स और अर्ध सैनिक बलों ने किसानों पर हमले किए। इन हमलों में दो किसान शहीद हुए और 300 से ज्यादा किसान घायल हुए। कई किसानों ने अपने अंग खो दिए, जिनमें एक किसान नेता की आंख फूट गई। आखिर सरकार किस तरह का षड्यंत्र रच रही है। तो क्या अगली बार इस सरकार के केंद्र में आने पर किसी को अपनी बात रखने का अधिकार ही खत्म कर दिया जाएगा? खुद प्रधानमंत्री मोदी जिन किसानों को अन्नदाता कहते हैं, उन्हें कभी इन अन्नदाताओं के साथ इस तरह के अमानवीय और हिंसक व्यवहार पर कभी अफसोस हुआ?

जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने 19 नवंबर, 2021 को तीनों काले कृषि कानून वापस लिए और एमएसपी समेत अन्य मांगों को मानने का वायदा करते हुए उन्हें लागू करने के लिए एक उच्चस्तरीय समिति बनाई, जिसमें कि किसानों को शामिल ही नहीं किया गया और नतीजा ये निकला कि उस समिति ने अभी तक कोई ठोस निर्णय नहीं दिया, तो फिर इसमें गलती किसकी है? न ही अभी तक सुप्रीम कोर्ट ने सरकार के इस रवैये को लेकर उसे कठघरे में खड़ा किया।

दरअसल, किसानों के ऊपर किए गए इस खूनी जुल्म में सिर्फ केंद्र और हरियाणा की सरकारें ही शामिल नहीं हैं, बल्कि न्यायिक व्यवस्था, पुलिस और मुख्यधारा का मीडिया भी बराबर जिम्मेदार नजर आते हैं। क्योंकि जब पंजाब के किसानों को इस बात का पता चला कि उन्हें रोकने के लिए सरकार ने बेरिकेडिंग के अलावा मोटी-मोटी कीलें सड़कों में लगा दी हैं, तो वे अपने ट्रैक्टर और बुलडोजर लेकर पंजाब से चले, तो कोर्ट ने सरकार को बैरिकेडिंग करने से रोका क्यों नहीं? कोर्ट में हरियाणा सरकार के पक्ष की तरफ से पांच याचिकाएं डाली गई थीं, जिनमें किसानों की किसी भी तरह की रैली को रोकने की बात कही गई थी।

ये भी देखिये…

हरियाणा पुलिस ने तो किसानों को सीधे धमकी दी थी कि अगर वे जेसीबी या पोकलेन जैसे वाहन लेकर वे आगे बढ़े तो उन मशीनों के मालिकों और ड्राइवरों को नो वारंट इश्यू के तहत गिरफ्तार किया जाएगा। किसानों ने अपने बुलडोजर और पोकलेन मशीनें छोड़ दीं, लेकिन उनके साथ धोखा किया गया। उन पर एक्सापयरी डेट के वो हथियार और जहरीली गैसों से हमले किए गए, जो सेना में इस्तेमाल किए जाते हैं। समुद्र में जहाजों को बचाने के लिए खतरनाक साउंड करने वाला हथियार किसानों के खिलाफ तैनात कर दिया गया।

किसानों के वाहनों को बुरी तरह तोड़ दिया गया। हरियाणा पुलिस और हरियाणा सरकार ने हरियाणा के किसानों और दूसरे लोगों को किसान आंदोलन में भाग न लेने की साफ चेतावनी दी। उन्हें धमकाया गया। कई लोगों के गांवों में पुलिस का कड़ा पहरा लगा दिया गया। पुलिस ने किसानों पर बिना किसी कारण के लगातार गोलीबारी की। सादा कपड़ों में बुलेट जैकेट और हेल्मेट जैसे सुरक्षा कवच में छिपे कुछ लोग पुलिस के बीच मौजूद मिले, जो पुलिस से ज्यादा उग्र और हमलावर दिखे। इन लोगों ने आते-जाते आम लोगों के भी वाहन तोड़े, उन्हें वीडियो नहीं बनाने दिए और उनके साथ मारपीट भी की। किसानों की खड़ी फसलें नष्ट कर दीं।

इस बीच सरकार ने किसानों से चार दौर की बातचीत भी की, लेकिन किसानों को उनका हक देने के बजाय सिर्फ आश्वासन दिया है। उधर हरियाणा सरकार ने अपने राज्य के किसानों को आश्वासन दिया है कि वह उनके ऋण माफ कर देगी और एमएसपी भी देगी। यह चाल आंदोलन तोड़ने की भी हो सकती है। क्योंकि वायदे तो पहले भी किए गए थे।

ये भी पढ़िए …  11 दिन के अनुष्ठान कर रहे PM मोदी, बोले- अपनी भावनाओं को शब्दों में कहना मुश्किल

बहरहाल, अब किसानों ने अपने दिल्ली कूच की योजना रद्द कर दी है, जिसके बाद हाईवे थोड़े-थोड़े खोले गए हैं। आंदोलन में संयुक्त किसान मोर्चा (गैर-राजनीतिक) और किसान मजदूर मोर्चा (केएमएम) फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर कानूनी गारंटी और कृषि ऋण माफी सहित अपनी मांगों को स्वीकार कराने के लिए केंद्र की मोदी सरकार अपने वायदों पर अमल नहीं करती है, तो हो सकता है यह आंदोलन और बड़ा होकर पूरे देश के किसानों को सरकार के खिलाफ खड़ा होने को मजबूर कर दे। क्योंकि सरकार अभी किसानों की नाराजगी को हल्के में लेने की भूल कर रही है और वह यह भी नहीं समझ रही है कि किसानों के साथ देश के ज्यादातर लोग खड़े हैं, भले ही वे अभी मूकदर्शक बनकर सरकार की हिंसक नीति को देख रहे हैं।

Kisan Protest

बहरहाल, किसानों के आंदोलन का मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंच चुका है और मुझे लगता है कि सुप्रीम कोर्ट को इसे गंभीरता से लेते हुए सरकार को उसके वायदे याद दिलाते हुए उन सभी वायदों को तत्काल प्रभाव से लागू करने का आदेश देना चाहिए और साथ ही जिन किसानों की अब तक हत्या की गई है, उनके परिवार को दिल्ली सरकार की शहीदी मुआवजा पॉलिसी की तर्ज पर कम से कम एक-एक नहीं, बल्कि पांच-पांच करोड़ का मुआवजा देने का आदेश भी देना चाहिए। इसके साथ ही पुलिस को भी कठघरे में खड़ा करके निहत्थे किसानों पर गोलीबारी और दूसरे हथियारों से हमले के लिए दंडित करना चाहिए।

वीडियो फुटेज और सैटेलाइट फुटेज के जरिए ऐसे पुलिस वालों की पहचान की जानी चाहिए, जिन्होंने किसानों पर हमले किए और उन्हें इस गैर-कानूनी कार्रवाई के लिए दंडित करना चाहिए। इसके अलावा सरकार को सख्त हिदायत देनी चाहिए कि अगर उसने भविष्य में कभी अंग्रेजी हुकूमत की तरह अपने ही देश की जनता पर हथियार उठाए, तो उसे इसका अंजाम भुगतना होगा।

क्योंकि अगर इस तरह से सरकार अपने हक की मांग करने वाले और अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने वालों की आवाज एक तानाशाह की तरह जबरन कुचलने लगी, तब तो वो किसी भी आंदोलनकारी भीड़ को सांडर्स की तरह जलियांवाला बाग बना सकती है। फिर लोकतंत्र का मतलब ही क्या रह गया। आज देश में कई तरह के आंदोलन चल रहे हैं, क्या सरकार इस तरह से आंदोलनों को कुचलेगी? फिर लोगों के सरकार चुनने का मतलब ही क्या रह गया? कोई भी सत्ता पर आकर बैठ जाए और अपनी मनमानी करता रहे। क्या हम वापस राजतंत्र की तरफ लौट रहे हैं या गृह युद्ध की तरफ सरकार आजाद भारत को धकेलना चाहती है?

आखिर एमएसपी देने में सरकार को हर्ज क्या है? एमएसपी स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट के अनुसार देने का वायदा करके प्रधानमंत्री अपनी जुबान से क्यों मुकर रहे हैं? किसान क्या ज्यादा मांग रहे हैं? ऐसे ही कुछ सवालों के जवाब बहुत से लोगों को शायद न पता हों। दरअसल, स्वामीनाथन आयोग के मुताबिक, सी2 प्लस 50 फीसदी मुनाफा देने की बात साल 2006 में की गई थी। इसका मतलब यह हुआ कि किसानों की फसल पर मूल लालत और उसका 50 फीसदी मुनाफा सरकार देना सुनिश्चित करे। यानि अगर किसान को एक कुंटल धान उगाने में अगर 1.5 हजार रुपए लगाने पड़ते हैं, तो उसे 2 हजार 2 सौ 50 रुपए उसके एक कुंटल धान का दमा मिलना चाहिए।

इसमें गलत क्या है? क्योंकि उसी धान को 12 सौ से 15 सौ रुपए प्रति कुंटल खरीदने के बाद उसका भाव बाजार में डबल और चावल में चार गुना तक बढ़ जाता है। सरकार को यहां एमआरपी पर पाबंदी लगानी चाहिए, लेकिन नहीं लगाती। पूंजीपतियों से इतना याराना और किसानों से इतनी लूट क्यों? किसान एमआरपी थोड़े ही मांग रहे हैं। एमएसपी के तहत सरकार द्वारा ही तय कुल 23 फसलें हैं। एमएसपी न देने से देश के किसानों को हर साल करोड़ों रुपए का नुकसान होता है और इन्हीं फसलों के उत्पादों पर पूंजीपतियों द्वारा वसूली जा रही एमआरपी पर उन्हें अरबों का मुनाफा हर साल होता है।

कुछ अर्थशास्त्रियों का तर्क है कि यदि एमएसपी को कानूनी रूप से लागू किया जाता है, तो निजी क्षेत्र फसल नहीं खरीदेगा और सारी उपज सरकार को खरीदनी होगी। किसान केवल उन संस्थाओं के लिए मूल्य लागू करने की मांग कर रहे हैं, जो बाजार में ‘स्वेच्छा से प्रवेश’ करती हैं। उदाहरण के लिए गन्ने के मामले में कीमत सरकार द्वारा निर्धारित की जाती है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि निजी मिलों ने गन्ना खरीदना बंद कर दिया है। क्या न्यूनतम वेतन कानून के कारण उद्योग बंद हो गये हैं? क्या कोई पेट्रोल-डीज़ल इसलिए नहीं खरीद रहा क्योंकि सरकार अत्यधिक टैक्स वसूल रही है?

किसान शक्ति संघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष चौधरी पुष्पेंद्र सिंह कहते हैं कि वर्ष 2023-24 के लिए एमएसपी मूल्यों पर 23 फसलों के उत्पादन का कुल मूल्य लगभग 15 लाख करोड़ रुपये है। लेकिन सभी उपज का विपणन या बिक्री नहीं की जाती है। किसान अपनी उपज का एक बड़ा हिस्सा अपने उपभोग, पशु आहार और बीज के लिए रखते हैं। एक हिस्से का गाँव के भीतर आदान-प्रदान/वस्तु-विनिमय भी किया जाता है और कुछ का उपयोग वस्तु के रूप में श्रम के भुगतान के लिए किया जाता है। कटाई, परिवहन और भंडारण के दौरान फसल का एक हिस्सा चूहे खा जाते हैं या नष्ट हो जाते हैं। ये शीर्ष लगभग एक के लिए जिम्मेदार हैं- 23 एमएसपी फसलों में से तीसरा – 5 लाख करोड़ रुपये की उपज। तो, एमएसपी फसलों का लगभग 10 लाख करोड़ रुपये ही वास्तव में बाजारों में जाता है।

चौधरी पुष्पेंद्र सिंह का मानना है कि सरकार द्वारा निर्धारित मूल्य पर गन्ना खरीद सहित सरकारी खरीद लगभग 4-5 लाख करोड़ रुपये है। केवल 5-6 लाख करोड़ रुपये मूल्य की एमएसपी फसलें निजी क्षेत्र द्वारा खरीदी जाती हैं। यदि हम सभी 23 एमएसपी फसलों के लिए दीर्घकालिक समग्र योग लें, तो निजी क्षेत्र द्वारा जो भुगतान किया जाता है वह एमएसपी मूल्य से औसतन 25 प्रतिशत कम है।

यदि एमएसपी को कानूनी दर्जा मिलता तो निजी क्षेत्र 2023-24 में इतनी ही मात्रा के लिए किसानों को अधिकतम 1.5 लाख करोड़ रुपये अधिक का भुगतान करता। इसलिए, भले ही इस बिल का पूरा हिस्सा सरकार द्वारा उठा लिया जाए, लेकिन यह सालाना 1.5 लाख करोड़ रुपये से अधिक नहीं होगा।  तथाकथित अर्थशास्त्रियों द्वारा उद्धृत किए जा रहे अत्यधिक आंकड़े नहीं। हमें यह याद रखना चाहिए कि अकेले 2019 में कॉर्पोरेट टैक्स दरों में कटौती से केंद्र सरकार को सालाना लगभग 1.5 लाख करोड़ रुपये का कर-भुगतान करना पड़ा, यह आंकड़ा हर साल बढ़ता रहता है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं)

Similar Posts